एक छोटे से परमाणु से ब्रह्मांड तक की कहानी:
आजकल हम अपने आप से ज्यादा, दूसरों का ख्याल करने लग गए हैं। मैं कैसा हूंँ, मैं क्या करूं यह सोचने के बजाय हम दूसरों को सलाह देना पसंद करते आए हैं। खैर, यह भी बीते जमाने की बात है जब हम पड़ोसी को ऑफिस में दोस्तों को सब जगह सलाह बांटते फिरते थे। तुलसीदास जी महाराज ने सही तो कहा है,
‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे, जे आचरहिं वे नर न घनेरे’
इसको पहले गपबाजी कहते थे, आजकल ‘चैट’ कहते हैं। फर्क और कुछ नहीं, दायरा बहुत बड़ा विशाल हो गया है। चलो मुद्दे पर आता हूंँ। सोशल मीडिया पर आजकल सदुपदेश , कैरोना वायरस, राजनीति, पर्यावरण, भारतीय और अन्य सभ्यताएं और उसकी महानता, धर्मनीति , नीति के सदुपदेश, व्यंग-चुटकुले से लेकर सिने गीत-संगीत, पाककला का बिग बाजार खुला हुआ रहता है। धड़ाधड़ इसका इंपोर्ट एक्सपोर्ट चलता है। हां, अफीम के खेत के बीच में जैसे कभी कभार एकाध तुलसी का पौधा उग आता है, वैसे छिटपुट रूप से साहित्य-कला-विज्ञान की चर्चा देखने में मिल जाती है। कल ऐसे ही एक सीरियस किस्म का वीडियो, जिसमें ‘पृथ्वी ग्रह से अगर कुछ क्षण के लिए ऑक्सीजन पूरी तरह ना रहे तो क्या होगा’ का जिक्र था। वैसे यह गेंद बहुत दिनों से इधर-उधर टप्पे खाते आ रही है, पर विज्ञान का विद्यार्थी होने की वजह से मुझे ऐसा लगा कि इस बात में दम है। इसे मेरे एक मित्र ने मुझे भेजा था, उस पर मैंने उन्हें कहा कि आपकी बात गंभीर तो है पर क्या कभी सोचा है अगर ब्रह्मांड से हाइड्रोजन गायब हो जाए तो क्या होगा? …. सब कुछ नष्ट हो जाएगा, क्योंकि सारा ब्रह्मांड एक बड़ा ब्लैक होल बन जाएगा। वह बहुत ज़हीन बंदा है, तो पूछा कि कैसे? कैसे का थोड़ा बहुत लिखा पढ़ा अंदाज़ तो था, पर लिखने की मुसीबत!!!

बड़ी मुश्किल से टिप-टिप करते हुए दो तीन दिन मे लिखा है। पर साथ में, कई सारे सवाल भी दिमाग में बाकी हैं, क्योंकि खगोल भौतिकी इतना क्लिष्ट विषय है कि पढ़ा हुआ तो आधा दिमाग के ऊपर से गुजर जाता है।
एक तारा कैसे बनता है:
किसी तारे का बनना आकाशगंगा (Galaxy) में उपस्थित धूल एवं गैसों के एक अत्यंत विशाल मेघ (Dust & Gas Cloud) से आरंभ होता हैं। इसे ‘निहारिका’ (Nebula) कहते हैं।
निहारिकाओं के अंदर हाइड्रोजन की मात्रा सर्वाधिक होती है और 23 से 28 प्रतिशत हीलियम तथा अल्प मात्रा में कुछ भारी तत्व होते हैं।
अब जब गैस और धूलों से भरे हुए मेघ के घनत्व (यह प्रक्रिया भारी तथा के परस्पर आकर्षण से प्रारंभ होती है ) में वृद्धि होती है। उस समय मेघ अपने ही गुरुत्व और तेज घूर्णन (रोटेशन) के कारण संकुचित होने लगता है। मेघ में संकुचन के साथ-साथ उसके केन्द्रभाग के ताप एवं दाब में भी वृद्धि हो जाती है। अंततः ताप और दाब इतना अधिक हो जाता है कि हाइड्रोजन के नाभिक आपस में टकराने लगते हैं और हीलियम के नाभिक का निर्माण करनें लगतें हैं । तब ताप नाभिकीय संलयन (Thermo-Nuclear Fusion) आरंभ हो जाता है। तारों के अंदर यह अभिक्रिया एक नियंत्रित हाइड्रोजन बम विस्फोट के समान होती हैं। इस समस्त प्रक्रिया में प्रकाश तथा ऊष्मा के रूप में ऊर्जा उत्पन्न होती है। (आगे मैं जो कहने वाला हूंँ , उस संदर्भ में यह बात ध्यान रखिए,कि संलयन की क्रिया में हाइड्रोजन एक अनिवार्य और आवश्यक अवयव है,और यह भी कि हाइड्रोजन अणु की बंध उर्जा की तुलना में नाभिकीय क्रियाओं से निकलने वाली ऊष्मा आसानी से उन्हें परमाण्विक और आयनिक स्वरूप में बदल सकती है।) इस प्रकार वह मेघ ऊष्मा व प्रकाश से चमकता हुआ तारा बन जाता है। तापनाभिकीय संलयन से निकली प्रचंड ऊष्मा से ही तारों का गुरुत्वाकर्षण संतुलन में रहता है (ऊष्माक्षेपी प्रक्रिया और प्रकाश निकलने के कारण आयतन में होने वाली वृद्धि से पदार्थ के कणों के परस्पर आकर्षण का मान अधिक होने पर ही कोई तारा बनता है) , जिससें तारा अधिक समय तक स्थायी बना रहेगा।


एक अंतिम अवस्था में पहुंचे तारे का के कृष्ण विवर में हो रहे ह्रास का काल्पनिक वीडियो परिदृष्य (साभार यूट्यूब) और
अंतत: जब तारे का संविलियन होने योग्य ईंधन (हाइड्रोजन तथा अन्य नाभिकीय ईंधन) खत्म हो जायेगा, तो उससे गुरुत्वाकर्षण को संतुलित करने के लिए पर्याप्त ऊष्मा और प्रकाश ऊर्जा निकल नहीं पाती है। जिसके कारण तारा ठंडा होने लगेगा, और गुरुत्वाकर्षण के बढ़ने से बहुत अधिक भारी भी। वर्ष 1935 में ही भारतीय खगोल भौतिकविद् (Astro Physicist) सुब्रमण्यन् चन्द्रशेखर ने यह स्पष्ट कर दिया, कि अपने ईंधन को समाप्त कर चुके सौर द्रव्यमान से 1.4 यह 1.5 गुना द्रव्यमान वाले तारे, जो अपने ही गुरुत्व के विरुद्ध स्वयं को नही सम्भाल पाता हैं। उसके बाद तारे के अंदर एक आंतरिक विस्फोट (Implosion due to mass compression) होता हैं। जिसे कभी-कभी सुपरनोवा विस्फोट (Supernova explosion – तत्सम हिंदी शब्द बड़ी मुश्किल से ढूंढा है- है – अधिनवतारा विस्फोट !!!) भी कहा जाता हैं। इस प्रकार के विस्फोट, दो तीन प्रकार के हो सकते हैं। एक तो एक ऐसा तारा जिसकी उत्सर्जन ऊर्जा (प्रकाश और ऊष्मा) चुक गई हो, और उसके भीतर अवस्थित भारी द्रव्य उसे आकार मे में इतना छोटा (बौना सितारा या dwarf star) कर दें, कि उसमें सुपरनोवा विस्फोट हो जाए। एक नील श्रेणी का बौना तारा (साभार गूगल)
दूसरे आकाशगंगा में ऐसे दो बौने सितारे परस्पर लगभग समान गुरुत्वाकर्षण होने से एक दूसरे में खिंचकर विलीन हो जाएं, और उनके संकुचन की प्रक्रिया और तेज हो जाए या तीसरे, एक किंतु बहुत अधिक गुरुत्वाकर्षणीय बल वाला बौना सितारा, कई तुलनात्मक रूप से छोटे-छोटे आकाशीय पिंडों को खींचकर स्वयं में विलीन कर ले।
यह सब ठीक ठीक क्यों और कैसे होता है इस बात को मैं स्वयं भी नहीं समझ पाया हूंँ।
खैर ,विस्फोट के बाद यदि उसका अवशेष बचता हैं, तो वह अत्यधिक घनत्वयुक्त ‘न्यूट्रान तारा’ (Neutron star) बन जाता हैं। आकाशगंगा में ऐसे बहुत से तारे होते हैं जिनका द्रव्यमान सौर द्रव्यमान से तीन-चार या कई गुना से भी अधिक होता है। ऐसे तारों पर गुरुत्वीय खिचांव अत्यधिक होने के कारण तारा संकुचित होने लगता हैं,और क्योंकि उसकी दृष्य,श्रव्य किसी भौतिक उपकरण की सीमा से बाहर चली जाती है। (जादुई शब्दों में, वह है या नहीं यही पता नहीं चलता अर्थात अदृश्य हो जाता है!!!) तो ऐसी स्थिति को खगोल वैज्ञानिक दिक्-काल (Space-Time) विकृति कहते हैं।परिणामत: जब तारा किसी निश्चित क्रांतिक सीमा (Critical limit) तक संकुचित हो जाता हैं, और अपनें ओर के दिक्-काल को इतना अधिक बढ़ा लेता है कि हमारे लिए भाव अदृश्य (सामान्य टेलीस्कोपों की दृष्टि में) हो जाता हैं। यही वे अदृश्य पिंड होते हैं जिसे अब हम ‘कृष्ण विवर’ या ‘ब्लैक होल’ कहतें हैं। अमेरिकी भौतिकविद् जॉन व्हीलर (John Wheeler) ने वर्ष 1967 में पहली बार इन पिंडों के लिए ‘कृष्ण विवर’ (Black Hole) शब्द का उपयोग किया।
इसके पश्चात की जो बात जो मैं कह रहा हूंँ, कि ब्रह्मांड की सारी हाइड्रोजन भी क्षणार्ध के लिए गायब हो जाए या ना रहे, वह दरअसल मेरी कही हुई कोई अनोखी या नई बात नहीं है, मैंने यह बात एक खगोलीय भौतिकी के पुस्तक में पढ़ी हुई है, जिसका जिक्र हेलन कार्टियस (Helene Courtois) ने किया है। कल्पना कीजिए कि तारों के भीतर की सारी हाइड्रोजन समाप्त हो जाए। स्वाभाविक है कि ऐसी स्थिति में नाभिकीय संविलयन (nuclear fusion) की क्रिया भी लगभग रुकते ही जाएगी, इस दौरान होने वाला प्रोटॉन इलेक्ट्रॉन संवलियन (हाइड्रोजन ही नहीं है जनाब, हाइड्रोजन यानी एक प्रोटोन के पास घूमने वाला एक इलेक्ट्रॉन !!) भी समाप्त भी हो जावेगा। ऊर्जा स्रोत समाप्त फैलाने का स्वाभाविक रूप से ऊर्जा उत्सर्जन भी समाप्त हो जाएगा। सब तरफ सिर्फ संकुचन की कहानी शुरू हो जाएगी, लगभग सभी तारे बहुत तेजी से बौने सितारे बन जाएंगे। जब इतनी बड़ी संख्या में (या सभी!!!) बौने सितारे बन जाएंगे। एक बार कृष्ण विवर बन जाने पर
ब्रह्मांड का क्या होगा, यह आप स्वयं अंदाज लगा लीजिए। संपूर्ण ब्रह्मांड में हाइड्रोजन और कुछ हद तक हीलियम ही मूल रूप से सर्वाधिक पाए जाने वाले मूल तत्व हैं। ऑक्सीजन तुलनात्मक रूप से प्रमाण निर्माण की श्रृंखला में काफी आगे आता है। पृथ्वी से ऑक्सीजन गायब हो जाने वाले वर्णन का वीडियो निश्चित रूप से काफी भयावह है, गलत भी नहीं है। मैं सिर्फ एक दूसरी संभावना की बात कर रहा था। जिन लोगों को रात में आकाश निहारने का शौक है, जो ब्रह्मांड और उसकी निर्मिती के बारे में नया पढ़ते और कल्पना करते हैं, वे वास्तव में आध्यात्मिक रूप से, इन सारी घटनाओं को नियंत्रित करने वाली शक्ति क्या है (ईश्वर !!!?- क्यों नहीं?) उसका भी अप्रत्यक्ष रूप से विचार करते हैंं। इस विषय में बहुत सारे प्रश्न हैं, जिनके बारे में मैं नहीं जानता। इसी विषय से जुड़ी हुई एक बात मुझे याद आती है, कि जब कुछ वर्ष पहले यूरोपीय नाभिकीय भौतिकी संगठन (European Organization for Nuclear Research – CERN) ने एक बहुउद्देशीय नाभिकीय संलयनों और सूक्ष्म कणों की गतिज ऊर्जा के परीक्षण के लिए लार्ज हैड्रान कोलाइडर (Large Hadron Collider -LHC) बनाया था, उस समय एक महान भौतिक शास्त्री स्टीफ़न हॉकिंग ने मानव जाति को इस प्रकार के प्रयोग करने से यह कह कर मना किया था, कि इस बात की एक संभावना भी है,कि सूक्ष्म कणों के साथ किए जाने वाले प्रयोगों में बहुत भयावह परिणाम भी निकल सकते हैं। शायद उनका इशारा ब्लैक होल जैसी किसी चीज से रहा होगा रहा होगा जो क्षणार्ध में साड़ी पृथ्वी को नष्ट कर सकता है।’ए हिस्ट्री ऑफ टाइम’ से दुनिया को चौंकाने वाले इस भौतिक विज्ञानी ने अपनी इस नई किताब में सर आइजक न्यूटन की इस अवधारणा को खारिज कर दिया कि ब्रह्मांड स्वत:स्फूर्त ढंग से बनना शुरू नहीं कर सकता, बल्कि ‘ईश्वर’ जैसी किसी अज्ञात शक्ति ने उसे गति दी है।
ब्रह्मांड कितना फैला है, क्या ‘हम‘ जैसा कोई और भी है। हम कहां से आए हैं, कहां जाएंगे ? अगर ‘ब्लैकहोल’ जैसा कुछ है, तो वह सारे ब्रह्मांड को निकल क्यों नहीं सकता ? CERN का ‘गॉड पार्टिकल’ और ‘प्रति-द्रव्य’ (Anti Matter) आपस में मिल जाएं , तो भी क्या ब्लैकहोल बन जाएगा ?
ऐसे बहुत सारे प्रश्न हैं जो विचारणीय हैं । यह एक ऐसा विषय है कि जिसका कोई निश्चित अंत, ओर-छोर नहीं पा सका है। कबीरदासजी ने सच ही कहा है;
जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ,
मैं बपुरा बुडन डरा, रहा किनारे बैठ।
कभी पहले, मैंने इस संदर्भ में कुछ किताबें पढ़ी थीं, उनमें से दो का संदर्भ में यहां विशेष रुप से देना चाहूंगा, क्योंकि वे तुलनात्मक रूप से काफी नई हैं। आजकल तो संभवतः इनके हिन्दी अनुवाद भी उपलब्ध होंगे। वैसे नेट पर भी आजकल सारे विषयों पर इतनी सारी सामग्री है कि आप उसे आसानी से कहीं भी पढ़ सकते हैं, बशर्ते कि आपको उसका शौक़ हो।
१)’Finding Our Place in the Universe’ (MIT Press, 2019)
By Hélène Courtois
२)’Out There’ (Grand Central Publishing, 2018)
By Mike Wall.
(सभी चित्र और वीडियो गूगल और यूट्यूब से साभार)
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रवीन्द्र परांजपे
rpparanjpe@gmail.com