गणपती

गणपती

जैसे ही जन्माष्टमी के उत्सव की धूम समाप्त होती है, वैसे ही भारत के लोग गणेश जी के आगमन की तैयारी शुरू कर देते हैैं।उत्तर और पूर्वी भारत की तुलना में महाराष्ट्र, कर्नाटक, गुजरात ,मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और आंध्र प्रदेश गणेश चौथ से लेकर अनंत चौदस तक गणपति उत्सव अधिक उत्साह के साथ मनाया जाता है। गणेशजी के बारे में , विशेषकर गणेश मूर्ति की स्थापना, आकार, निर्माण के पदार्थ, पूजा, विसर्जन आदि को लेकर , गणपति उत्सव के पास आते ही, फेसबुक, व्हाट्सएप से लेकर अखबारों पत्र-पत्रिकाओं में इतनी बातें आने लगती हैं, कि सच क्या और झूठ क्या इसी में सर चकराने लगता है। तो मेरा निवेदन है, कि मेरी बातें कभी फुर्सत में पढ़ लीजिए, नहीं तो अनावश्यक कन्फ्यूजन और बढ़ जावेगा। गणेश जी के विषय में यदि आपको अधिकारीक रूप से जानना हो तो गणेश पुराण के भारतीय भाषाओं में अधिकारिक अनुवाद उपलब्ध है। इसके अलावा ब्रह्मपुराण जो कि गणेश पुराण से संभवत: कुछ और पुराना है, उसके संदर्भ देखना भी उचित रहेगा। इसके लिए संस्कृत का ज्ञाता होने की आवश्यकता नहीं है। धार्मिक विषयों पर बहुत संभाल के लिखने की आवश्यकता है, इसलिए मैंने इतनी विस्तृत जानकारी लिखने की कोशिश की है। कारण बहुत स्पष्ट है, कि आजकल नवमत वादियों और पुरातन परंपरा में विश्वास रखने वालों के बीच इस विषय पर गणेश महाराज के स्वरूप आदि के बारे में बड़ी विद्वत्तापूर्ण शास्त्रार्थ छिड़ा हुआ है।

गणपति क्यो बैठाते हैं :

वैसे सामान्यत: गणेश जन्म की और उसके पश्चात शिव जी के द्वारा उन्हें वर्तमान स्वरूप देने की विभिन्न कथाएं प्रचलित हैं। और अधिकांश लोग यही मानते हैं, कि गणेश के जन्मदिवस के कारण ही यह उत्सव मनाया जाता है। पर उनको पानी में क्यों विसर्जन करते हैं,दस या ग्यारह दिन ही क्यों ….. इत्यादि कई बातों के जवाब इस कथा से नहीं मिलते। फिर हम सभी, हर साल गणपती की स्थापना करते हैं, साधारण भाषा में गणपति को बैठाते हैं। लेकिन ऐसा करने के पीछे एक अलग पौराणिक कथा है।
हमारे लगभग सभी प्रमुख धर्मग्रंथों के अनुसार, महर्षि वेद व्यास ने महाभारत की रचना की थी। लेकिन लिखना उनके वश का नहीं था।अतः उन्होंने श्री गणेश जी की आराधना की और गणपति जी से महाभारत लिखने की प्रार्थना की।पर इसके साथ ही उन्होंने व्यास जी के समक्ष एक विचित्र शर्त रख दी, उन्होंने कहा की ‘हे महाज्ञानी आचार्य, मैं पूरे ग्रंथ को पूरा ‘आद्यांत और अविश्रांत’ (पूरा ग्रंथ एक साथ और बिना रुके) तभी वह अक्षुण्ण उपनिषदों और वेदों के समकक्ष माना जावेगा।’ उनका तात्पर्य था के महर्षि वेदव्यास और संपूर्ण कथा बिना रुके कहेंगे और गणेश जी उसे अविश्रांत-अर्थात बिना रुके-लिखेंगे। शर्त कठिन तो थी पर वेदव्यास जी जानते थे कि बिना अथर्व कृपा के यह कार्य असंभव है। उन्होंने सहमति दे दी तो गणपती जी ने भी हामी भर दी। इस पर , भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को व्यास जी ने, गणेश जी का आवाहन करके, सर्वप्रथम उनका अभिषेक सहित स्वागत करके उनकी अष्टांग पूजा की।
अब दिन-रात लेखन कार्य प्रारम्भ हुआ। यह कार्य दस दिन चलना था। इस कारण गणेश जी को थकान तो होनी ही थी, लेकिन उन्हें दिन में पानी पीना भी वर्जित था।अतः गणपती जी के शरीर का तापमान बढ़े नहीं, इस हेतु से वेदव्यास ने उनके शरीर पर चिकनी मिट्टी को गीला कर उसका लेप किया। (चिकनी मिट्टी मेंं अधिक पानी धारण करने की शक्ति होती है) इसी क्रम में ग्यारह दिन बीत गए और मिट्टी का लेप सूखने पर गणेश जी के शरीर में अकड़न आ गई, इसी कारण गणेश जी किसी मृदमूर्ति (पृथ्वी के तत्व अर्थात मिट्टी से बने हुए- ‘पार्थिव‘) जैसे दिखाई देने लग गए । इसलिए उनका एक नाम पर्थिव गणेश भी पड़ा। और गणेश उत्सव के दौरान जो मूर्ति हम स्थापित करते हैं उसे पार्थिव गणेश कहा जाता है।
महाभारत का लेखन कार्य ग्यारह दिनों तक चला।अनंत चतुर्दशी को लेखन कार्य संपन्न हुआ।
वेदव्यासजी ने देखा कि , गणपती का शारीरिक तापमान फिर भी बहुत बढ़ा हुआ है और उनके शरीर पर लेप की गई मिट्टी सूखकर झड़ रही है, तो वेदव्यास ने उन्हें और शीतलता प्रदान करने केे हेतु से, उनका यथायोग्य पूजन अर्चन और अनुष्ठान एवं दक्षिणा अर्पित कर, विदाई की पूजा के पश्चात पानी में डाल कर विदा किया।(इसे ही विसर्जन कहा जाता है) कहा जाता है कि गणेश जी के शरीर से जो चिकनी मिट्टी नीचे झरकर गिरी थी, महर्षि वेदव्यास ने अपने कुछ पूर्व शिष्यों में प्रसाद के रूप में बांट दी। जब उन शिष्यों ने मिट्टी अपने घरों में बिखेर दी, तो वे आजन्म सुख समृद्धि ऐश्वर्य से पूर्ण आयुष्य के भागी हुए। संभवत इसी से प्रथा चल पड़ी कि जब गणेश मूर्ति को अनंत चौदस के दिन नदी अथवा तालाब विसर्जित करते हैं तो उसी पटे पर हम उस नदी, तालाब अथवा कुंड की कुछ रेत या मिट्टी उठाकर लाते हैं और घर भर में बिखेर देते हैं।
खैर जब इधर लेखन कार्य जारी था तब मोदक प्रिय गणेश निराहार तो रह नहीं सकते थे । इसलिए इन दस दिनों में वेदव्यास ने गणेश जी को खाने के लिए मेवों से युक्त अनेक प्रकार के मोदक, मिष्ठान और फल इत्यादि विभिन्न पदार्थ अर्पित किए। इन्हें नैवेद्यम कहा जाता है। गणेश जी के लेखन कार्य में व्यस्त होने के कारण दाहिने हाथ सेे लेखनबद्ध होते थे, इसलिए उन्होंने एकभुक्त होनेे का (दिन में केवल एक बार भोजन ग्रहण करने का व्रत) व्रत लिया हुआ था। ऐसी किंवदंती है के सूर्यास्त के पश्चात वे बाएं हाथ से लिखने लग जातेे और दाहिने हाथ से प्रसाद ग्रहण करते थे। संभवतः इसी आधार पर कलियुग में इन दस दिनों में गणपति का सांध्यपूजन और नैवेद्य प्रसाद का विशेष महत्त्व है। किंतु आधुनिक काल में जो गणेशोत्सव सार्वजनिक तौर पर मनाया जाने लगा तब दोनों वक्त आरती, पूजन, प्रसाद, भंडारे आदि के आडंबर प्रारंभ हो गए।
स्थान के अनुसार किस प्रकार की गणेश जी की मूर्ति को स्थापित करना चाहिए।
# गणेश जी कैसे आपके घर का वास्तुदोषों को सुधार सकते हैं यह जान लेना भी योग्य होगा।

#सुख, पारिवारिक शांति और अध्यात्म की चाह रखने वालों को सफेद रंग के विनायक की मूर्ति लानी चाहिए।साथ ही, घर में गणपतिजी एक स्थाई चित्र भी पूर्व या पश्चिमामिमुखी लगाना चाहिए।

#सर्व मंगल, स्वास्थ्य एवं ऐश्वर्य की कामना करने वालों के लिए सिंदूरी रंग के गणपति की आराधना अनुकूल रहती है। प्राय: हमारे घर में स्थापना के लिए इसी प्रकार की मूर्ति लाई जाती है। – घर में पूजा के लिए गणेश जी की अर्धशयन या बैठी मुद्रा में हो तो अधिक शुभ होती है। घर में स्थापित की जाने वाली मूर्ति केवल मिट्टी बनी हुई होनी चाहिए। जहां तक संभव हो सके पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से अपने भरोसे के मूर्तिकार से मूर्ति खरीदें जो तेल में बने हुए प्राकृतिक रंग इस्तेमाल करता हो। प्लास्टर ऑफ पेरिस (POP) , चीनी मिट्टी, सीमेंट,पेपरमेशी, मेवों, फलों अथवा प्लास्टिक क्ले की बनी हुई मूर्तियां न तो शास्त्रीय, और न पर्यावरण की दृष्टि से मान्य हैं। गणेश पुराण के अनुसार किसी गृहस्थ के घर में (तात्पर्य हमारे सामान्य घरों से है) गृह स्वामी के ग्यारह अंगुल के तुल्य (लगभग एक बीता ऊंची) से अधिक बड़ी प्रतिमा स्थापित नहीं करनी चाहिए।(एकादशांगुल मृद्मूर्तिर स्थापनीयं–गणेश पुराण)

# आजकल हम धार्मिक श्रद्धा के प्रति, मन से उतने कटिबद्ध नहीं होते, जितने की प्रचार माध्यमों और सोशल मीडिया से प्राप्त जानकारी के प्रति दिखावा करने के लिए। इसलिए विडंबना यह है कि घर में स्थापित गणेश जी की पूजा एक बार छूट जाए, उसके शास्त्रीय नाप-जोख, स्वरूप का वर्णन हम बहुत सूक्ष्मता से करने लग गए हैं। किंचित इसी श्रेणी में गणेश जी की सूंड का स्वरूप भी आजकल अधिक महत्वपूर्ण हो गई है। इसका धार्मिक और पौराणिक आधार तो है, पर आज से 20 साल पहले उसे इतना महत्व नहीं दिया जाता था जितना कि आज !! घर स्थापित करने के लिए, बाई तरफ सूंड घुमाए हुए गणेश जी विराजित करना चाहिए। बांये सूंड से हमारा तात्पर्य यह है कि सूंड का मध्य भाग अगर बांयी ओर मुड़ा हो, और सूंड का अंतिम हिस्सा अगर दाहिनी ओर भी मुड़ गया हो, तो भी ऐसी मूर्ति को बांयी सूंड वाली की मानी जावे। ऐसे गणपति चंद्र नाड़ी के गणपति होते हैं और चंद्र नाड़ी की विशेषता शीतलता प्रदान करना होती है। आध्यात्मिक दृष्टि से ऐसे गणपति का पूजन पुण्य संचय करने वाला होता है। बांयी सूंड वाले गणपति की पूजा अर्चना भी सामान्य विधि से की जाती है और यदि अनजाने में उसमें कोई त्रुटि हो भी जावे, तो तो भी कोई पातक नहीं लगता है, यदि पूजक, पूजा के पश्चात क्षमा प्रार्थना के मंत्र ‘आवाहनं न जानामि, न जानामि तवार्चनम्, पूजाम् चैSव न जानामि….’ पूजा के अंत में श्रद्धा पूर्वक कहे जावें।इसलिए घरों में आजकल के दिखावे के दौर में, गणेशोत्सव के दौरान स्थापित की जाने वाली मूर्ति इसी प्रकार ही होती है !! मंगल मूर्ति को मोदक और उनका वाहन मूषक अतिप्रिय है। इसलिए मूर्ति स्थापित करने से पहले ध्यान रखें कि मूर्ति या चित्र में मोदक या लड्डू और चूहा जरूर होना चाहिए। विशेषकर घर के पूजन में स्थापित की जाने वाली गणेश मूर्ति में गणेश को छोड़कर कोई अन्य देवता, प्राणी अथवा विचित्र वाहन मान्य नहीं है। इसलिए प्रथम पूज्य गणपति के उत्सव में माता पार्वती के गोद में बैठे हुए अथवा माता-पिता के सानिध्य में गणेश जी की मूर्ति, मोर, हाथी आदि प्राणियों पर आरूढ़ मूर्ति नहीं स्थापित करनी चाहिए।

# घर में स्थापित होने वाले गणेश, गणेश चतुर्थी के दिन प्रायः मध्यान्ह अथवा गोरज (संध्या) के मुहूर्त में स्थापित करते हैं। विसर्जन भी प्राय: अनंत चतुर्दशी के दिन सूर्यास्त के पूर्व किया जाता है। वैसे महाराष्ट्र में विभिन्न परंपराओं और कुलाचार के अनुसार डेढ़,तीन, पांच,सात दिनों के पश्चात भी गणेश जी का विसर्जन किया जाता है।यद्यपि घर के पूजन में सामान्य जनों से कुछ त्रुटियां हो जाती हैं, पर गणेश जी के दाहिने ओर स्वस्ति-घट और श्रीफल तथा बांई ओर दो बीड़े के पत्तों पर कुछ अक्षत चावल के ऊपर एक सुपाड़ी की स्थाणुर गणेश (स्थान देवता के रूप में अभिषेक आदि पूजन के लिए प्रतीक गणपति, जिनका विसर्जन नहीं होता) की विधिवत स्थापना अवश्य की जानी चाहिए। स्थापना के समय स्थाणुर और पार्थिव, दोनों ही गणेशों को ब्रह्मसूत्र (जनेऊ), बीड़ा, दक्षिणा, वस्त्र, फूल (यदि संभव हो तो प्रतिदिन लाल फूल, गणेश जी को अवश्य अर्पण करें, जो उनको अत्यंत प्रिय हैं।) , अक्षत के चावल, हरिद्रा कुमकुम, दूर्वा, तुलसी तथा गुलाल अर्पण करना न भूलें। अगर आप स्वयं गणेश जी की स्थापना कर सकते हैं, तो यह ध्यान रखें कि आपके पास स्थापना की पूजा का संपूर्ण क्रम उपलब्ध है। यदि नहीं तो स्थापना के लिए अनेक लोग पंडित जी को भी बुला कर यह कार्य करते हैं।
ग्यारह दिनों के इस उत्सव में प्रतिदिन प्रातः काल स्नान के पश्चात जब आप घर के देवताओं का पूजन करते हैं उसी समय गणेश जी का पूजन भी करें। प्रातः कालीन पूजा में गणपति अथर्वशीर्ष का पाठ कर उनका अभिषेक करना उत्तम है। सामान्यतः सुबह अन्य देवताओं के साथ श्री गणेश जी को नैवेद्य (भोग) प्रदान किया जाता है। किंतु सायंकालीन पूजा में, यथासंभव परिवार के समस्त सदस्य उपस्थित होकर आरती करें और गणेश जी को मिष्ठान्न का प्रसाद अर्पित किया जाए।

#दाएं (दक्षिण) हाथ की ओर घुमी हुई सूंड वाले (आपके बाएं हाथ की ओर सूंड घूमे हुए) गणपति की सूर्य नाड़ी मानी जाती है जो के प्रखरता का प्रतीक है। ऐसी तेजस्वी गणपति दक्षिण दिशा की ओर महकर मुख कर बैठाए जा सकते हैं, और ऐसा माना जाता है कि उनकी प्रखरता से दक्षिण दिशा का अधिपति यम भी भय खाता है। किंतु ऐसे गणेशजी हठी होते हैं और उनकी साधना-आराधना कठिन होती है। वे देर से भक्तों पर प्रसन्न होते हैं। और पूजा में त्रुटि रहने पर कुपित भी हो जाते हैं, इसलिए प्राय: तांत्रिक कार्यों के लिए ऐसी मूर्त्तियों का प्रयोग किया जाता है।

#अगर आपके कार्यस्थल पर गणेश जी की मूर्ति विराजित कर रहे हों, तो खड़े हुए गणेश जी की मूर्ति लगाएं। इससे कार्यस्थल पर स्फूर्ति और काम करने की उमंग हमेशा बनी रहती है। ऐसी मूर्तियां सवा हाथ (लगभग दो फुट) हो सकती हैं। यह नियम सार्वजनिक कार्यक्रमों में स्थापित की जाने वाली प्रतिमाओं के लिए भी लागू होता है।
यदि कला या अन्य शिक्षा के प्रयोजन से पूजन करना हो तो नृत्य गणेश की प्रतिमा का पूजन लाभकारी है।
#आजकल, दुर्भाग्य से गणेश बुद्धि शक्ति और समृद्धि के प्रतीक होने की बजाय, व्यवसायिकता और शान शौकत के प्रदर्शन का जरिया बन गए हैं। यह भारतीय समाज के लिए बड़े दु:ख की बात है। वास्तव में यह नई और पुरानी पीढ़ियों की धारणाओं का और नई, पुरानी परंपराओं के मिश्रण से उपजा हुआ घालमेल है।मजेदार बात यह है, कि परंपराओं के टकराव में एक दूसरे के विरोधी बातें बोली जाती हैं और कथनी की तुलना में करनी में अंतर आ जाता है। पुरानी पीढ़ी मिट्टी की परंपरागत मूर्तियों की पैरवी करती है, तो नई पीढ़ी नदियों और जल स्रोतों को प्रदूषित न करने की बात करती है। प्लास्टर ऑफ पेरिस की मूर्तियां और निर्माल्य (देवता के उतरे हुए हार और फूल) और सजावट के थर्मोकोल, प्लास्टिक की सामग्री और हानिकारक रंगों की वर्जना होती है। बात तो एक ही है, पर वास्तविकता के धरातल पर इसका कहीं पालन होता दिखाई नहीं पड़ता।
# दूसरी और वास्तविकता में बड़े-बड़े पंडाल सजते हैं, बीस से पचास फीट तक की, भारी तार के ढांचों और प्लास्टर की विशाल रंग बिरंगी गणेश मूर्तियां विराजमान होती हैं। जिनमें हानिकारक ऑयल पेंट, भारी धातुओं का, कैंसर कारक रंगों का इस्तेमाल होता है। थर्मोकोल के महल बनते हैं, रंगीन चमकदार प्लास्टिक के हार और झूमर लटकाए जाते हैं, चमकदार झालर के एलईडी बल्ब, सैकड़ों किलोवाट बिजली खर्चते हुए हुए मंडप सजते हैं। मुख्य मंडप के दोनों और तीन चार सौ मीटर सड़क पर रंग बिरंगी रोशनी की जाती है; और अपनी मंडप की ओर अधिकाधिक लोगों को आकर्षित करने के लिए सैकड़ों डेसीबेल आवाज उत्पन्न करने वाले बॉक्स और हॉर्न स्पीकर्स की दीवार खड़ी कर दी जाती है। ऐसे सार्वजनिक पांडालों में धार्मिक गीतों से अक्सर शुरुआत होती है और फिर धीरे धीरे फूहड़ और कभी कभी अश्लील रैप गानों तक नौबत पहुंच जाती है। इससे ध्वनि प्रदूषण तो होता ही है, साथ साथ वैचारिक प्रदूषण भी जन्म ले लेता है। आवाज की कर्कशता से वृद्ध लोगों, रोगियों और छोटे बच्चों को विशेष रूप से तकलीफ होती है। वृद्ध लोगों और दिल के मरीज इस से सर्वाधिक प्रभावित होते हैं। हाल में, मुंबई में किए गए एक सर्वेक्षण के माध्यम से यह ज्ञात हुआ है, कि सतत रूप से बहुत तीव्र ध्वनी के कारण, गणपति जी के पंडाल से 200 मीटर दूरी तक के रहवासियों की श्रवण शक्ति, स्थाई या अस्थाई रूप से 20% तक प्रभावित होती है। 30 से 40% घरों में नींद की कमी और रक्तचाप के बढ़ने से, चिड़चिड़ाहट, कौटुंबिक कलह बढ़ जाते हैं। यह सारी बातें मीडिया,शासन और सर्वाधिक तो सोशल मीडिया के उपदेशों के बाद भी बढ़ रही है, यह ही गहन चिंता का विषय है।
# जहां तक प्रतिमा के विसर्जन का प्रश्र्न है, पारंपरिक रूप से गणेश प्रतिमाओं को प्राकृतिक जल स्त्रोतों (नदी, तालाब या समुद्र) में विसर्जित किया जाता रहा है। आज भी पुराने लोगों का वही विश्वास कायम है; और कुछ कट्टर धर्म प्रचारक इसी बात में विश्वास करते हैं कि यह जल स्रोतों का प्रदूषण वगैरह बातें , आधुनिक विचारधारा वाले लोग धर्म भ्रष्ट करने के लिए कहते हैं। इस प्रकार के तर्क करने में हम तीन बातें भूल जाते हैं। पहले तो, मूर्तियों वाली बात, पूर्व काल से मिट्टी की मूर्तियों को छोड़कर अन्य कोई प्रावधान नहीं था, न प्लास्टर ऑफ पेरिस, न प्लास्टिक, न सीमेंट हॉट न प्लास्टिक करले। पहले निर्मल्य में केबल बासी फूल होते थे। दूसरे, मूर्तियों का आकार; इस बाबत भी धर्मशास्त्रों के अनुसार अब मूर्तियों के आकार का पालन नहीं करते हैं। तीसरी बात मूर्तियों की आकार के साथ साथ बढ़ती हुई संख्या। आज से पचास वर्ष पूर्व की तुलना में, मूर्तियों की संख्या बीस गुना से ज्यादा हो गई है। जबकि तुलनात्मक रूप से जलस्रोतों की संख्या पहले से काफी कम हो गई है। कई छोटी नदियां सूखने लगी हैं, अधिकांश तालाब पूर दिए गए हैं। जो बचे हैं उनमें भी जल की मात्रा कम हो गई है और प्रदूषण इतना अधिक कि विगत पचास साल में, भारत की लगभग चार गुना बढ़ी आबादी में से ९०% आबादी को शुद्ध पेयजल मिलना लगभग असंभव हो गया है।
कुल मिला कर,यह सारा धार्मिक भावनाओं,श्रद्धा, विश्वास के तुलना में धर्म को नयी धारणाओं , चमक-दमक और सुविधा के नजरिए से देखने की घालमेल का नतीज़ा है। कोई भी इन सारे उत्सवों के पीछे छिपी सौहार्द, सामाजिक मेलजोल और विनम्र श्रद्धा को पनपने का मौका ही नहीं देना चाहता। खेद के साथ कहना पड़ेगा कि उपरोक्त उत्क्रांतियों से गुजर कर हम पर्यावरण के साथ अपनी सांस्कृतिक धरोहर को खो बैठेंगे। हमें किसी मध्यम मार्ग के रास्ते को चुनना होगा, जिससे श्रेय और प्रेम दोनों की प्राप्ति हो सके।

– रवीन्द्र परांजपे।

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