दो तीन दिन पहले एक अजीब वाकया हुआ। वॉट्सएप पर श्री गणेशजी का यह प्यारा सा चित्र साझा किया गया था। उस पर यह कहा गया कि इस चित्र पर कुछ सुन्दर सी पंक्तियां लिख भेजिए।बस फिर क्या था, सिद्धहस्त कवियों ने धड़ाधड़ कविताओं का ढेर भेजना शुरू कर दिया। यह क्या बात हुई भला, एक गणु,भौत सारे फूल,जय जय । बस और क्या ? इस पर कोई कविता लिखने की बात जमीं तो नहीं। खैर, बात जमी नहीं यह तो एक बहाना था। कुछ लिखना तो दूर, कविता बनाना तो बिल्कुल ही आसमान से तारे तोड़कर लाने जैसी बात थी। मतलब ‘नाच न आवे ……’वाला बहाना ! क्यों कि पिछले पचास साल से कविता का ‘क’ नहीं लिखा था। (पहले दो चार,कार्टून छाप लाइनें लिखीं थीं, गणेश जी की कसम झूठ नहीं बोलूंगा !) यह तो वैसी बात हुई कि,
“उम्र तो सारी कटी इश्क़-ए-बुताँ में ‘मोमिन’ ; आख़िरी वक़्त में क्या ख़ाक मुसलमाँ होंगे।”
हां,पर बात चैलेंज की थी ; क्यों कि पूछने वाली मोहतरमा हमारे लिए बेहद खास हैं। सो दोस्तों, रख दिया गिलोटिन के नीचे सिर ! आप खुद ही देख लीजिए, और फैसला भी कर दीजिए।
##########श्री##########
##########श्री############
एक सुघड़ सा चित्र दिखाया,
उस सुभगे के ने मुझको आज।
वह तो थे प्रत्यक्ष गजानन
सुमुख, कुमुददल का था साज।
पर पण’ रखा कठिन था उसका ,
वर्णन करो छंदमय,छवि का
अथवा तुम गुण-गद्य चितेरो,
या फिर तुम चुपके ‘चीं’ बोलो!
हे प्रिय,ना मैं कवि,ना लेखक,
तुम मुझको, यूं व्यर्थ न घेरो।
प्रभु,तुम वेदव्यास बन जाओ,
खुद ही अपनी स्तुति लिखवाओ।
अर्ध शतक के बाद छंद को,
तब मैं दे पाऊं , न्याय,विवेक।
(पण : शर्त)
*********श्री गणेश*******
तुम शैफाली श्वेत सुगन्धित,
इन्द्रजाल सा लेकर विन्यास।
संख्याबल, मादक सुगन्ध से,
अलि ! क्या जीतोगी गणराज ?
मैं तो एक अकेला गुड़हल,
ना सुगंध है , ना संख्या बल।
दिया रंग,आकृति का साज,
प्रभु ने मुझे स्वयं का आज।
एक सूंड़ भी अपने जैसी,
दो वैसे ही विस्तर्ण कर्ण हैं,
मैं खुश हूं ,मैं जहां पड़ा हूं,
नहीं शीर्ष की चाह मुझे है।
पारिजात, तुम स्वर्ग पुष्प हो,
लक्ष्मी मां के भी तुम प्रिय हो।
फिर भी ‘हर’-सिंगार नाम धर,
तुम किस किस को छलते हो।
मेरी विनय सुनो यदि चाहो,
श्रीगणेश को ना ललचाओ।
सारे पुष्प बनाए उसने,
स्पर्धा यह किस काम की
हे गणराज, कृपा तुम रखना,
सबके शुभ कल्याण की।
∆∆∆∆∆∆∆∆∆श्री∆∆∆∆∆∆∆∆∆
*************************