थोड़ी ढील दे दे भाई ….
कुछ दिन पहले ६७ वां हिंदी दिवस था, और फिलहाल यह हिन्दी सप्ताह भी खत्म हो रहा है।जगह जगह खानापूर्ति के पोस्टर उतर रहे हैं।कई लोग शायद राहत की सांस ले रहे हैं। यही हमारा भारत बनाम इंडिया है। पर यहां लिखा रहता है, ‘प्रेस टू फॉर हिन्दी !!’
शिक्षक हूंँ तो ऐसे मौके याद रह ही जाते हैं। हिन्दी सप्ताह खत्म, हिन्दी खत्म ! डूबते सूरज को भी कोई अध्र्य देता है भला! इसी लिए मैंने मेरे मन की बात लिखने के लिए आज का दिन ही चुना।
पिछले ही हफ्ते की बात है , सुबह-सुबह एक भाई मिले, भूल से उन्हें हिन्दी दिवस की बधाई दे बैठा। कैसे : ‘भैयाजी, हिन्दी दिवस मुबारक !’
हिन्दी दिवस आते ही सभी व्याकरणविद और पं.रामचन्द्र शुक्ल के ताऊ बन जाते हैं , फिर यह साहब क्यों पीछे रहते ! वैसे मैं थोड़ा हक्का-बक्का कि क्या पता कौन सा गुनाह हो गया ? हुआ यह था, कि यह सज्जन , हिंदी के अध्यापक भी हैं और अपने आप को भाषा का ध्वजवाहक भी मानते हैं। फिर भी नहीं समझे होंगे, तो यूं समझ लीजिए कि वे स्वयं बिल्कुल शुद्ध हिन्दी बोलेंगे और आपसे भी वैसी ही सुनना चाहेंगे। बिगड़ कर बोले ‘कम से कम आज के दिन तो शुद्ध भाषा का प्रयोग करके शुभकामनाएं देनी चाहिए , यह मुबारक कहां से ले आए? तुम्हें कितने दिन से समझा रहा हूं ,कि उर्दू, फारसी, अंग्रेजी की मिलावट हिन्दी के साथ मत किया करो।’
वास्तव में हिन्दी के ‘कठिन’ होने की शिकायतें ऐसे अतिवादी और हठी दृष्टिकोण के कारण भी होती हैं, जो गलत भी नहीं है। महात्मा गांधी ने वर्धा में, सन् 1930 में ही कहा था, कि भविष्य में हिन्दी का ‘हिंदुस्तानी’ स्वरूप ही, इस देश को एक साथ जोड़ने का कार्य कर सकता है।
हम १९५३ से लगातार १४ सितंबर को ‘हिन्दी दिवस’ मना रहे
हैं।(क्यों, यह किसी को मालूम नहीं!!) यह (और अन्य कई राष्ट्रीय दिवस) हमारे लिए केवल प्रतीकात्मक बन कर रह गए हैं। अगर हिन्दी (सह)राजभाषा है तो फिर संदेशों, शुभकामनाओं के संदेश,दिखावे के समारोहों के आडंबरों की क्या आवश्यकता है। मेरे एक परिचित ने इस बात पर,यह स्पष्टीकरण दिया,कि हम स्वतंत्रता दिवस, गणराज्य दिवस वगैरह भी एक इसी प्रकार मनाते हैं,वैसे ही हिन्दी दिवस भी मनाते हैं। नहीं भाई, १५ अगस्त और २६ जनवरी यह आनन्द और उत्साह के दिन जरूर हैं,पर राजकीय स्तर पर इन्हें मनाने का एक निश्चित विधान और प्रक्रम (प्रोटोकॉल और डेकोरम)तय है। अन्य राष्ट्रीय दिवसों, जैसे हिन्दी दिवस, बालदिवस, शिक्षक दिवस आदि में ‘स्मरणीयता’ तो है,पर मनाने के नियमों की स्थूलता है। जैसे देखिए न, सरकारी कार्यालयों के लिए सचिवालय से जिस प्रकार के निर्देश आ जाएं, बैंकों में जो मुख्यालय से करने के लिए कहा जाए , इस प्रकार के कार्यक्रम आयोजित होते हैं। विद्यालयों में अपना अपना अलग अलग तरीका होता है। खैर, दिवस तो मन ही जाता है।
हिन्दी दिवस पर सब लोग हिन्दी के नाम से रोते हैं, आगे बढ़ नहीं रही है, सब लोग नहीं बोलते, दक्षिण भारत वाले नहीं बोलते, समझ जाते हैं पर बोलने से इनकार करते हैं, अंग्रेजी का ही बोलबाला है ।वगैरह-वगैरह। मेरा मुद्दा यहां पर यही है,कि आप हिन्दी का झंडा ऊंचा चढ़ाना चाहते हैं और दूसरी तरफ रस्सी को खंबे से ढीला भी करना नहीं चाहते। अगर अकेली हिन्दी को आपको सम्पूर्ण राष्ट्र की संपर्क भाषा, राजभाषा की जगह राष्ट्रभाषा बनाना है, तो आपको अपनी भाषिक शुद्धता के मापदंड कुछ कम करके,अन्य प्रादेशिक भाषाओं के प्रचलित शब्दों को उदारता के साथ रास्ता देना होगा। यह ठीक है कि जब आप हिन्दी साहित्य की पढ़ाई कर रहे हों, कोई साहित्यिक लेख लिख रहे हों ;तब यह आग्रह समझ में आता है की शुद्धता का मापदंड पूरी तरह अपनाया जावे। मैं यह कतई नहीं कह रहा कि अगर आपकी मातृभाषा हिन्दी है या आपकी भाषा की पकड़ अच्छी है, तो आप जानबूझ कर गलतियां करें। आप दर्जनों उर्दू शब्दों का, हिन्दी समझ कर प्रयोग करते हैं,सोशल मीडिया पर शेर-ओ-शायरी के पेज भरे रहते हैं।उर्दू तो खैर हिन्दी की मुंहबोली बहन है, मौसी जी हैं तो उसका तो हम धड़ल्ले से प्रयोग करते हैं।पर अगर हम दिल्ली की पंजाबी,
हरियाणवी मिश्रित ‘ओए इक बंदा भेज्ज इधर भी’ या मुंबई की खास बम्बइया के ‘हीरो,तू पुट ले इदर से,भौत थकेला लग रिया है।’ को हिंदी के रूप में पचा लेते हैं; तो अन्य भाषा भाषियों की हिन्दी के अटपटे स्वरूपों पर भी हमें आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
बात केवल अन्य भाषा भाषियों के साथ हिन्दी में सम्पर्क करने की है। अगर अहिन्दी प्रदेशों में हिन्दी का आधिकाधिक प्रसार चाहते हैं, हिन्दी को लोकप्रिय बनाकर सही मायने में राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाना चाहते हैं , तो ऐसे मित्रों की हिन्दी में आपको उनकी मातृभाषा या लोक भाषा के शब्दों को, बिना मजाक उड़ाए, समझना भी चाहिए या समझने की कोशिश भी करनी चाहिए। भले ही अस्थाई तौर पर हमें थोड़ी अंग्रेजी का सहारा क्यों न लेना पड़े। ‘मैं जेवण(खाना खाकर) करके आया हूंँ ‘, तुम (‘आप’ के स्थान पर) जॉल खायेगा क्या ? (बांग्ला में ‘खाना’ क्रिया वाकई में संस्कृत के ‘ग्रहण करना’ के रूप में है) वगैरह को यथासंभव निर्लिप्त भाव से समझने और ग्रहण करने का प्रयत्न करें। द्रविड़ भाषा भाषियों को हिन्दी बोलने में स्वाभाविक रूप से अधिक परेशानी आती है, क्योंकि उनको अलग लिपि, शब्द विन्यास और उच्चारण की आदत होती है।’मई बाहर्र इरुट्टु (अंधेरा) में तनियान(अकेला)
आय्याजी !!’ कहने पर किसी तमिल मित्र का मजाक उड़ाने की बजाए, अगर उसे आराम से बैठा कर एक गिलास पानी पिलाकर, बाद में हिंदी-अंग्रेजी के मिश्रण में उससे ‘इरुट्टु’ और ‘तनियान’ का मतलब समझ लें और साथ ही उसे भी सही हिन्दी शब्द बता दें तो इससे दो नहीं तीन लाभ होंगे। पहले दो लाभ तो यह कि आप तमिल शब्द सीख जाएंगे और उन्हें हिन्दी शब्दों का ज्ञान हो जाएगा। यह दो तो मामूली बातें हैं। खास और सबसे बड़ी बात तो यह होगी के आपके तमिल मित्र के मन में आपके प्रति जो विश्वास उत्पन्न होगा , वह बड़ा मूल्यवान होगा और यही चीज ‘आपकी’ हिन्दी को बहुत दूर तक ले जाएगा। इसीलिए आपको याद होगा कि पिछले दिनों सोशल मीडिया पर, एक तमिल भाषाभाषी समाचार वाचिका को हिन्दी में मौसम का हाल सुनाते हुए, मजाक के तौर पर प्रस्तुत किया गया था। इसीलिए केवल मैंने ही कहा था कि नहीं ठीक है भाई, चलने दो, इनका मजाक मत बनाओ। ‘आपकी हिन्दी’ इसी तरह ‘उनकी हिन्दी’ भी हो जाएगी।
बस इतनी सी बात है। आप में से बहुतों ने पतंग जरूर उड़ाई होगी। पतंगबाजी में एक के बजाय अगर दो जन हों तो बेहतर होता है। एक,जो थोड़ा उस्ताद होता है, वह डोर थामता है और जो थोड़ा छोटा होता है,वह परेती (चकरी या चरखी) पकड़ता है। भैये,यह कला बिल्कुल हिन्दी सीखने जैसी है। कभी झटके देकर (इसे खास पतंगबाजों की भाषा में ठुमके देना कहते हैं, खैर यह बातें और दिलकश हैं,तो उनकी बात कभी और करेंगे) पतंग आसमान में चढ़ानी पड़ती है। फिर ढील देकर सद्दी हाथ में आने तक उसे ऊपर चढ़ाते हैं।कभी कभी पेंच भी हो जाते हैं।इस सब में जो परेती संभालता है,उस गरीब की खासी मुसीबत रहती है।कभी लपेटो, नहीं मांझा उलझ न जाय, और पेंच लड जाय तो ढील तो देनी ही पडती है,वह भी बडी तेजी से।वही बात है यहां पर भी।अगर आपको हिंदी की पतंग को ऊपर, बहुत ऊपर ले जाना है, तो कानून के पेंच मत लड़ाइये, कानून के मांझे से दोनों पक्षों की उंगलियां लहूलुहान हो जाती हैं। यह बात हम १९५८ और १९६७ के हिन्दी विरोधी आंदोलनों में देख चुके हैं। जबकि आश्चर्यजनक रूप से आधे से अधिक तमिल और करीब एक तिहाई केरलीय लोग, तब भी हिन्दी समझ लेते थे। अब तो यह संख्या और भी बढ़ गई है। प्रेम से हिन्दी की पतंग को ढील दीजिए, ताकि सद्दी में भी इतनी ऊपर चढ़ सकती है,कि पूरे भारत में नजर आ जाए।
सारी दुनिया भुला के रूह को मेरे संग कर दो,
हिन्दी के धागे से बंध जाओ, खुद को पतंग कर दो।
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सर, बहुत सुंदर लेख है। सुरुवात मे उच्च कोटी की हिंदी मे लिखा है। कुछ कुछ मै भी समझ नही पाया. बाद मे आपने स्थानिक भाषा मिश्रित हिंदी का सुझाव दिया है न वही से आगे उसी लहजे लिखा है। पंजाबी, बंगाली, दक्षिण भाषा मे आपने कैसे लिखा है सर, मेरी समझ के परे है। आप तो आप है। शिर्षक भी बहुत अच्छा चुना है।
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आपका हृदय से धन्यवाद। भाषा में कुछ विशेष नहीं है। जैसा होता गया, देखा था वैसे लिखता गया। प्रारंभ की भाषा जानबूझकर शुद्ध नहीं दिखी दर्शन क्रोध में लिखी है जिसके माध्यम से मैं केवल यह बताना चाहता हूंँ, की दुरूह भाषा सामान्य व्यक्ति के लिए वाकई तकलीफदेह हो सकती है।
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