पतझड
झरती पंखुड़ियां यादों की,
पतझड,बसंत भी बीत रहा।
हर नया वर्ष , हर नया पर्व
बीते जीवन की साक्षी रहा।
समय रेल सा रुकता, चलता,
आवन,जावन का मेल रहा।
मोड़ पता कब हो अंतिम यह
भय,संशय का यह खेल रहा।
सूरज गोधूली में डूब चला तब,
कल सूर्योदय का स्वप्न खिला।
झरती पंखुड़ियां यादों की,
पतझड,बसंत भी बीत रहा।
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क्यों बीत गया मेरा बचपन,
यौवन भी मृगजल खेल बना।
ढल चली शाम जब जीवन की,
तब स्वप्नों को क्यों करूं मना ?
यह जमा-खर्च की झोली जीवन पर इसका हिसाब पूरा कर लूँ,
तब उस पार चलन की सोचूंगा।
चप्पू तब खेने बैठूंगा,
हां, खुद ही खेने बैठूंगा।
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रवीन्द्र परांजपे,
+९१९६४४०३२३२९
rpparanjpe@gmail.com
अप्रतिम काव्य सर. शब्दांची निवड ही छान आहे.
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