अहा जिंदगी ,वाह जिंदगी
किसी बात पर हार कर बैठ जाना
मुनासिब नहीं,पस्ते हिम्मत न हो तू
जब तब न था,न अब भी रहेगा,
यही जिंदगी का है बाकी फ़साना।
ना कोई साथ था….
ना कोई साथ होगा,
खुद की परछाई का
भी यूँ वही हाल होगा,
मुश्किल का सूरज
जो सिर पर चढेगा…
खुद की परछाई भी
तब ख़ुदग़र्ज़ बनकर
क़ाफूर हो जाती है अक्सर..
थामी थी पतवार तूने
तब भी खुद के भरोसे,
अब वही कर फिर से,
तू खुद के ही भरोसे…..
क्योंकि,
ग़र तूफ़ां’ तुझ पे भारी पड़ा तो,
हिम्मत से सबका भरोसा उठेगा।
कमर कस के फिर से खड़ा हो,
मुझे दे ये हिम्मत ,सहारा मुझे दे
तू हार की भीख हर्गिज न लेगा।
किसी बात पर हार कर बैठ जाना
मुनासिब नहीं,पस्ते हिम्मत न हो तू।
अहा जिंदगी ,वाह जिंदगी,
रवीन्द्र परांजपे, rpparanjpe@gmail.com